Saturday, August 18, 2012

असंस्कारी


बेसुधी सी, नकली मुस्कान चढ़ाए 
संकड़ी गलियों में, लाल बत्तियों में 
भभकते कमरो में, तंग गद्दो पे 
अपना ठीकाना बना लिया | 


मुँह छिपाके लोग आते है
कुछ पैसे थमा जाते है 
कुछ हमे साथ ले जाते 
पर आबरू लूट जाते है|


भावनाए घर छोड़ के आते 
कामनाएँ साथ लेके आते
जिज्ञासा भर भर के लाते
हवस अपनी मिटा के जाते |


फ़र्क नही पड़ता अब कुछ 
महसूस नही होता अब कुछ 
बुरा भी नही लगता अब कुछ 
अच्छा जो बचा नही अब कुछ |


शायद रोज़ नये लोग है आते  
अलग डील-डौल के भी गर होते 
हमे तो वो सब एक ही लगते 
रोज़ हमे नया नाम दे जाते |


नाम में क्या रखा है 
पता जान के क्या करना है 
वैश्या मुझे बुला लेना 
पुनर्वासन की बात चले तो 
असंस्कारी कहके समाज से निकाल देना |

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