बेसुधी सी, नकली मुस्कान चढ़ाए
संकड़ी गलियों में, लाल बत्तियों में
भभकते कमरो में, तंग गद्दो पे
अपना ठीकाना बना लिया |
मुँह छिपाके लोग आते है
कुछ पैसे थमा जाते है
कुछ हमे साथ ले जाते
पर आबरू लूट जाते है|
भावनाए घर छोड़ के आते
कामनाएँ साथ लेके आते
जिज्ञासा भर भर के लाते
हवस अपनी मिटा के जाते |
फ़र्क नही पड़ता अब कुछ
महसूस नही होता अब कुछ
बुरा भी नही लगता अब कुछ
अच्छा जो बचा नही अब कुछ |
शायद रोज़ नये लोग है आते
अलग डील-डौल के भी गर होते
हमे तो वो सब एक ही लगते
रोज़ हमे नया नाम दे जाते |
नाम में क्या रखा है
पता जान के क्या करना है
वैश्या मुझे बुला लेना
पुनर्वासन की बात चले तो
असंस्कारी कहके समाज से निकाल देना |
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